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शेर
किसी महबूब-ए-गंदुम-गूँ की उल्फ़त में गुज़रते हैं
दम अपना जिस्म से या ख़ुल्द से आदम निकलता है
ज़ेबा
शेर
फ़साना-दर-फ़साना फिर रही है ज़िंदगी जब से
किसी ने लिख दिया है ताक़-ए-निस्याँ पर पता अपना
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
शेर
किसी के संग-ए-दर से एक मुद्दत सर नहीं उट्ठा
मोहब्बत में अदा की हैं नमाज़ें बे-वुज़ू बरसों
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
बैठो जी का बोझ उतारें दोनों वक़्त यहीं मिलते हैं
दूर दूर से आने वाले रस्ते कहीं कहीं मिलते हैं
अज़ीज़ हामिद मदनी
शेर
है जीना और मरना जब अकेले ही तो मेरे दिल
किसी का दूर जाना क्या किसी का पास आना क्या